पूर्व भारतीय हॉकी टीम के कप्तान संदीप सिंह का प्रेरणादायक भाषण (Inspirational and motivational speech by former Indian hockey captain Sandeep Singh)
हरियाणा के छोटे कस्बे से मेरी कहानी शुरू होती है। हॉकी मेरे बड़े भाई का खेल था। हॉकी से मुझे प्यार था, लेकिन खेलने की इच्छा कभी नहीं हुई। हॉकी के कारण मेरे बड़े भाई को जूते, कपड़े, हॉकी स्टिक्स मिलते थे और मैं चाहता था मुझे भी मिलें।
मेरे पैरेंट्स से जब यह चीजें मांगता था तो वो कहते थे हॉकी खेलोगे तो ही ये मिलेगा। बस, इसी कारण मैंने हॉकी खेलना शुरू किया। खूब कड़ी ट्रेनिंग होती थी, कोच भी सख्त थे।
थककर चूर हो जाता था तो बड़े भाई कहते थे कि तू साइकिल चलाएगा…और वो पीछे बैठ जाते थे। लगभग 17 साल की उम्र में 2003 में पहली बार टीम इंडिया में आया।
सबसे छोटी उम्र के खिलाड़ी के रूप में एथेंस ओलिंपिक में भारत को रिप्रेजेंट किया। 2005 में मैंने जूनियर वर्ल्ड कप में सबसे ज्यादा गोल किए। ये गोल इसलिए मायने रखते थे कि मुझे सीनियर में दबदबा बनाना था जिससे दुनिया मुझे ‘फ्लिकर सिंह’ के नाम से जाने।
2006 बढ़िया चल रहा था, मेरी ट्रेनिंग जोरों पर थी, सब अच्छा था। इस साल के एक दिन ने मेरी जिंदगी को बदलकर रख दिया। 22 अगस्त 2006 की सुबह मैंने दिल्ली के लिए ‘कालका शताब्दी’ ट्रेन ली। कुछ देर बाद एक धमाका हुआ जैसे बम फटा हो। फिर सन्नाटा हो गया।
मेरा शरीर उछला और ऐसा लगा जैसे किसी ने लोहे की रॉड मेरी कमर में घुसा दी। अचानक पीछे से एक आदमी आता है, और हाथ में गन पकड़े कहता है ‘मुझसे गलती से गोली चल गई जो आपको लगी है। वो गोली स्पाइनल कॉर्ड पर लगी जिससे मैं वही पैरालाइज हो गया।
मुझे तुरंत अस्पताल ले जाया गया। ऑपरेशन हुआ। वेंटिलेटर पर भी रहा। चार हफ्ते लग गए होश आने में। मेरा वजन 40 फीसदी कम हो गया। मेरे सामने कुछ डॉक्टर थे जो कह रहे थे हम नहीं कह सकते कि कभी आप हॉकी खेलोगे, या कभी आप चल पाओगे।
बहुत बड़ी बात होगी, अगर व्हीलचेअर पर भी बैठ गए। उसी वक्त मैंने डॉक्टर्स से कहा कि सामने गेट है, आप जा सकते हैं, मुझे नेगेटिव इंसान की जरूरत नहीं है।
बड़े भाई से मैंने वहीं हॉकी स्टिक मंगाई, जो मैं आज तक साथ रखता हूं। इसके बाद का जीवन बेहद मुश्किल था। 23 घंटे जागता और एक घंटा सोता था, वो भी गोलियों की मदद से।
कुछ दिन बाद भाई से कहा फील्ड पर आना है। हम रात को छुपकर कोशिश करते थे बिस्तर से उठने की, हॉकी स्टिक के सहारे। कुछ हफ्तों की कोशिश के बाद व्हीलचेअर पर बैठने की इजाजत मिल गई।
रिहैब के लिए विदेश जाने की सलाह मिली। विदेश गया तो व्हीलचेअर पर था और छह महीनों बाद लौटा अपने पैरों पर। मैं चल सकता था, थोड़ा भाग सकता था लेकिन टारगेट था इंडिया टीम में आना।
एअरलाइंस की टीम से खेलना शुरू किया। कुछ महीनों ट्रेनिंग की, एक टूर्नामेंट आया जिसमें मुझे थोड़ी सफलता मिली। इसके बाद फेडरेशन से कहा कि मुझे टीम में लिया जाए।
मौका मिला 2008 में। सुल्तान अजलन शाह टूर्नामेंट में आठ गोल किए, टॉप स्कोरर रहा। भारतीय टीम का कप्तान बना। 2009 में भी बतौर कप्तान सुल्तान अजलन शाह जीता। सबसे ज्यादा गोल किए। अर्जुन अवॉर्ड मिला।
ओलिंपिक क्वालिफायर में रिकॉर्ड बनाए और भारत को लंदन का टिकट दिलवाया। संदीप सिंह से पिलकर सिंह तक के इस सफर में एक ही चीज ऊपर रही, हार मत मानो।
अच्छा फाइटर चैलेंज स्वीकारता है। मुझे लगी गोली एक चैलेंज था। कोई भी लक्ष्य हासिल करें तो रुकें नहीं, अगला टारगेट तय करें। जिस दिन सोच लिया ‘मैं सफल हूं’, उस दिन से पतन शुरू हो जाएगा।
में पूर्व भारतीय हॉकी कप्तान संदीप सिंह)