भारत देश में कई पोराणिक कथाएं और कहानियां प्रसिद्ध है। जिन्हें पुराने समय में लोग इस कहानियों और कथाओं से बहुत कुछ सीखते थे। तो आज हम इस लेख में आपके लिए प्रेरणादायक और शिक्षाप्रद बोध कथाएं (Short Bodh Katha in Hindi) लेकर आये है।
1. तप का यश
तपस्वियों का मान केवल उनके ज्ञान या तप के कारण नहीं रहा है, उनके मान के कारणों में उनका धैर्य-भरा जीवन और त्यागी जीवन शैली भी शामिल रही है। मिथिला के एक नैयायिक थे, किरणावली- ईश्वर सिद्धि के रचयिता उदयनाचार्य।
उन्होंने सदा सत्य का सहारा लिया, कभी किसी की ठकुरसुहाती नहीं की, सुविधा या लाभ के लिए किसी की खुशामद या याचना नहीं की। ईश्वर सिद्धि का विवेचन कर वे विजय पाते रहे।
इतने त्यागी, तेजस्वी पंडित के घर में अभाव ही अभाव थे। एक समय ऐसा भी आया कि उनकी पत्नी के पास बदलने के लिए वस्त्र ही नहीं थे।
वे फटे-पुराने वस्त्र पहनकर मुंह अंधेरे ही नदी जाती और स्नान करके मटकी में पानी भर कर लातीं थी। एक दिन उन्हें थोड़ी देर हो गई और उजाला हो गया।
राह में किसी परिचित ने उनके फटे-पुराने कपड़ो को देखा और फिर दूसरों से इसकी चर्चा की। यह सुनकर पंडिताइन रो उठीं। रोती-बिलखती घर आई। पत्नी को रोता देखकर संयमी तपस्वी उदयनाचार्य भी विचलित हो उठे।
उनकी पत्नी अभावों-कष्टों में भी कभी नहीं रोई थीं। पत्नी से सारी बात जानकर बोले, ‘अब तो तुम्हारे लिए राजा के द्वार तक जाना ही होगा।’ पति-पत्नी दोनों चले। रास्ते में नदी पड़ी। मल्लाह ने नदी की उतराई मांगी। उदयनाचार्य सरल भाव से बोले, ‘पंडित हैं।’
मल्लाह बिगड़कर बोला, ‘सभी अपने को पंडित कहते हैं। पंडित तो मिथिला-भर में अकेला उदयन है, जो घोर अभाव में रहा, पर कभी किसी के सामने हाथ नहीं फेलाया।’
यह बात सुनते ही पत्नी ने पति से कहा की ‘सिंदूर की डिबिया घर पर ही रह गई है, घर वापस जाना होगा, तो आप नाव से उतर जाइए।
दोनों घर लौट आए। पत्नी ने कहा, ‘हम दुख कष्ट सह लेंगे, पर अब कहीं नहीं जाएंगे। ऐसे यश को कभी कलंकित नहीं करूंगी। किसी के सामने आपके यशस्वी हाथ को पसारने का मौका नहीं दूंगी।
2. किसने किसकी मदद की?
पति, पत्नी और उनके दो प्यारे-प्यारे बच्चे। वह एक खुशहाल परिवार था। एक बार पति-पत्नी को जरूरी काम के चलते शहर से बाहर जाना था। काम कुछ ऐसा था कि वे बच्चों को साथ नहीं ले जा सकते थे, इसलिए उन्होंने बच्चों को घर पर ही आया के भरोसे छोड़ दिया था।
फिर हुआ यूं कि उनका काम जल्दी पुरा हो गया, तो वे अपनी कार में घर की ओर चल पड़े। वे बातें कर रहे थे कि बच्चे उन्हें जल्दी आया देख कितने खुश होंगे। तभी उन्हें आसमान में उठता धुआं दिखा।
जब वे घर के कुछ पास पहुंचे, तो देखा कि मोहल्ले में कुछ दूर रहने वाले उनके एक पड़ोसी के घर आग लगी हुई थी। पति जल्दी अपने घर पहुंचना चाहता था, लेकिन पत्नी ने कहा कि पहले देखें तो पड़ोसी के घर क्या स्थिति है।
आखिरकार दोनों कार से उतरकर जलते घर की ओर चल दिए। वहां बाहर लॉन में एक महिला बदहवास-सी हालत में चीख रही थी ‘कोई भीतर जाकर मेरे बच्चों को बचा लो।’
उसकी हालत देखकर पति को बड़ी दया आई। उसने अपने कपड़ों को पानी में भिगोया और मुंह पर गीला रूमाल बांधकर घर के अंदर दौड़ पड़ा।
घबराई पत्नी ने उसे रोकना चाहा, पर वह नहीं रुका। अंदर पहुंचकर उसने पाया कि बैठक कक्ष में दो बच्चे डरे-सहमे दुबके थे। उसने दोनों को उठाकर सीधे दौड़ लगा दी और बाहर आकर ही दम लिया।
पड़ोसी महिला को उसके बच्चे सौंपते हुए उसने पूछा कि क्या भीतर कोई और भी है, क्योंकि उसने कुछ और आवाजें भी सुनी थीं।
महिला से पहले ही उसके बच्चे घबराए हुए चिल्ला पड़े कि उनके दो दोस्त और हैं, जो उनके साथ छुपन-छुपाई खेल रहे थे और ऊपर गए थे।
अब वह आदमी एक बार फिर वहां जाने की तैयारी करने लगा। इस बार उसकी पत्नी के साथ ही अन्य लोगों ने भी रोका, परंतु वह जलते घर की ओर दौड़ पड़ा।
ऊपर के कमरे में आग पहुंची नहीं थी, लेकिन धुआं भरा था। वह बमुश्किल बच्चों तक पहुंचा और उन्हें उठाकर सीढ़ियां उतरने लगा। दोनों बच्चे उसके एक-एक कांधे पर थे।
अचानक उसे लगा कि बच्चों का स्पर्श जाना-पहचाना है। बाहर आकर उसने बच्चों को कांधे से उतारा, तो उसकी पत्नी चीख़ मारकर रो पड़ी।
पति की आंखों में खुशी के आंसू थे। ये उसी के बच्चे थे। दरअसल, बच्चों की देखभाल करने वाली आया दोनों बच्चों को पड़ोसी के यहां छोड़कर कुछ देर के लिए सहेली के साथ बाजार चली गई थी और उस बीच अग्निकांड हो गया था।
3. मन का बल सबसे प्रबल
गौतम बुद्ध अपने भिक्षुओं के साथ विहार करते हुए शाल्यवन में एक वटवृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्म चर्चा शुरू हुई और उसी क्रम में एक भिक्षु ने उनसे प्रश्न किया।
‘भगवन्! कई लोग दुर्बल और साधनहीन होते हुए भी कठिन से कठिन परिस्थिति को भी मात देते हुए बड़े-बड़े कार्य कर जाते हैं, जबकि अच्छी स्थिति वाले साधन सम्पन्न लोग भी उन कार्यों को करने में असफल रहते हैं। इसका क्या कारण है?’
बुद्ध उन्हें समझाने के लिए एक प्रेरक कथा सुनाने लगे। विराट नगर के राजा सुकीर्ति के पास लौहशांग नाम का एक हाथी था। राजा ने कई युद्धों में इस पर आरूढ़ होकर विजय प्राप्त की थी। शैशव से ही लौहशांग को इस तरह प्रशिक्षित किया था कि वह युद्ध कला में बड़ा प्रवीण हो गया था।
सेना के आगे चलते हुए पर्वताकार लौहशांग जब प्रचण्ड हुंकार भरता हुआ शत्रु सेनाओं में प्रवेश करता, तो विपक्षियों के पांव उखड़ जाते थे। धीरे-धीरे समय के साथ जिस तरह जन्म के बाद सभी प्राणियों को युवा और जरावस्था से गुजरना पड़ता है, उसी क्रम से लौहशांग भी बुढा होने लगा, उसकी चमड़ी झूल गई और युवावस्था वाला पराक्रम जाता रहा।
अब वह हाथीशाला की शोभा मात्र बनकर रह गया। एक बार लौहशांग हाथीशाला से निकलकर पुराने तालाब की ओर चल पड़ा, जहां उसे पहले कभी प्रायः ले जाया करता था। उसने भरपेट पानी पीकर प्यास बुझाई और गहरे जल में स्नान के लिए चल पड़ा।
उस तालाब में कीचड़ बहुत था। दुर्भाग्य से वृद्ध हाथी उसमें फंस गया। यह समाचार राजा सुकीर्ति तक पहुंचा, तो वे बड़े दुखी हुए। हाथी को निकलवाने के बहुत-से प्रयास किए गए पर वे सफल नहीं हुए। उसे इस दयनीय दशा के साथ मृत्यु के मुख में जाते देखकर सभी दुखी हो गए। जब सारे प्रयास विफल हो गए, तब एक चतुर मंत्री ने युक्ति सुझाई।
इसके अनुसार, हाथी को निकलवाने का प्रयत्न करने वाले सभी लोगों को वापस बुलाया गया और उन्हें युद्ध में जाने वाले सैनिकों की वेशभूषा पहनाई गई। युद्ध में बजने वाली रणभेरियां मंगवाई गईं।
हाथी के सामने युद्ध के नगाड़े बजने लगे और सैनिक इस प्रकार कूच करने लगे जैसे वे शत्रुपक्ष की ओर से लौहशांग की ओर बढ़ रहे हैं। यह दृश्य देखकर लौहशांग ने पूरी ताक़त से चिंघाड़ लगाई और शत्रु सैनिकों पर आक्रमण करने के लिए पूरी शक्ति लगाकर बाहर निकल आया।
4. कठोरता हारती है।
एक साधु बहुत बूढ़े हो गए थे। उनके जीवन के आखिरी क्षण आ पहुंचे। उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया। जब वे सब उनके पास आ गए, तो उन्होंने अपना मुंह पूरा खोल दिया और शिष्यों से बोले, ‘देखो, मेरे मुंह में कितने दांत बच गए हैं?’
शिष्यों ने उनके पोपले मुंह के अंदर देखते हुए कहा, ‘महाराज, आपका तो एक भी दांत शेष नहीं है।’ साधु बोले, “देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है ना?’
सबने साथ में उत्तर दिया, ‘जी हां, जीभ अवश्य बची हुई है।’
साधु ने कहा, ‘जीभ तो मेरे जन्म के साथ से मेरे साथ है, और आज भी बची हुई है, जबकि दांत तो बाद में आए फिर भी पहले विदा हो गए।’
फिर सारे शिष्यों ने इसका भेद जानने के लिए प्रश्न किया ‘यह कैसे हुआ कि दांत कोई भी ना बचा और जीभ सलामत है?
संत ने बताया, ‘यही रहस्य बताने के लिए मैंने इस वेला में तुम्हें बुलाया है। इस जीभ में माधुर्य था, मिठास थी और यह ख़ुद भी कोमल थी, इसलिए आज भी मेरे पास है, परंतु दांतों में शुरू से ही कठोरता थी, इसलिए वे पीछे आकर भी पहले ख़त्म हो गए, अपनी कठोरता के कारण ये दीर्घजीवी नहीं हो सके। इसलिए दीर्घजीवी होना चाहते हो, तो कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।’